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Thursday, May 20, 2010

बिकाऊ पत्र, बिकाऊ पत्रकार, बिकाऊ पत्रकारिता!!!

एक बड़े समाचारपत्र समूह के संपादक पिछले दिनों दिल्ली में युवा पत्रकारों से मुखातिब थे। बड़ा समूह... बड़ा संपादक! उत्साहित युवा पत्रकारों की अपेक्षाएं हिलोरें मार रही थीं, पत्रकारिता में कुछ अनुकरणीय ग्रहण करने की लालसा और पत्रकारीय मूल्यों के विस्तार के पक्ष में कुछ नया सुनने की कामना में। लेकिन युवा पत्रकारों को निराशा मिली। धक्का पहुंचा उन्हें। बल्कि स्वयं को छला महसूस करने को विवश हो गये वे पत्रकार।
'पेड न्यूज' पर चर्चा के दौरान उस संपादक महोदय ने अप्रत्यक्ष ही 'पेड न्यूज' का समर्थन कर डाला। उनका तर्क था कि, '''पेड न्यूज' का दैत्य तब प्रकट हुआ था जब समाचार-पत्र उद्योग मंदी के भयानक दौर से गुजर रहा था। स्वयं को जीवित रखने के लिए अखबारों ने 'पेड न्यूज' का दामन थामा।'' संपादक का कुतर्क यहीं नहीं रुका। 'पेड न्यूज' की जरूरत को चिन्हित करते हुए उन्होंने उपस्थित पत्रकारों से पूछ डाला कि, ''...जब आप कभी जंगल में रास्ता भटक जाएं, भूखे-प्यासे हों, तब क्या आप भोजन के लिए शाकाहारी व मांसाहारी में फर्क करेंगे?'' अर्थात् जो भी मिलेगा उसका भक्षण कर डालेंगे। शर्म...शर्म! तो क्या कथित मंदी के दौर में अखबारों ने अतिरिक्त धनउगाही के लिए 'पेड न्यूज' का सहारा लिया? मैं इस तर्क को स्वीकार करने को तैयार नहीं। 'पेड न्यूज' को स्वीकार करनेवाले प्रत्यक्षत: दो नंबर अर्थात् काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था के भागीदार हैं। जिस 'पेड न्यूज' प्रणाली का समर्थन उस संपादक महोदय ने किया उन्हें यह तो मालूम होगा ही कि 'पेड न्यूज' का न तो कोई देयक (बिल) बनता है और न ही भुगतान के रूप में प्राप्त धनराशि को किसी खाते में दिखाया जाता है। सारा लेन-देन काले धन से होता है। ऐसे में क्या पत्र और पत्रकार पत्रकारीय मूल्यों की बलि नहीं चढ़ा देते? आदर्श और सिद्धांत की बातें करने का हक इनसे स्वत: छिन जाता है। अगर इस मार्ग से धन अर्जित करना है तो फिर कोई अखबार मालिक, संपादक या पत्रकार मूल्य, सिद्धांत, ईमानदारी, आदर्श की बातें न करें। घोषवाक्य के रूप में अपने-अपने अखबारों मेें छाप डालें कि, 'अखबार पूर्णत: व्यावसायिक है, बिकाऊ है, खरीद लो।' फिर पाठक अर्थात् समाज लोकतंत्र के इस कथित चौथे स्तंभ से अपेक्षाएं बंद कर देगा। वह मान लेगा कि अखबार और पत्रकार भी अन्य व्यवसाय की तरह काले धन से प्रभावित हैं। मूल्य, ईमानदारी, आदर्श, सिद्धांत की इनकी बातें ढकोसला मात्र हैं।
जहां तक कथित मंदी की बात है, मैं आज भी यह मानने को तैयार नहीं कि कथित आर्थिक मंदी के दौर में कोई बड़ा अखबार समूह वास्तव में प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ था। सच तो यह है कि एक सुनियोजित 'प्रचार' कर मंदी का हौवा खड़ा किया गया था। मीडिया संस्थानों ने उसका फायदा उठा कर्मचारियों की छंटनियां कीं। मंदी के बहाने कर्मचारियों का 'ऑफलोड' कर अपने खर्च को घटा, आमदनी बढ़ाने का रास्ता ढूंढा गया। 'पेड न्यूज' के पक्ष में 'मंदी' का बहाना वस्तुत: एक कुतर्क के अलावा कुछ नहीं।
हां, संपादक महोदय ने यह अवश्य ही ठीक कहा कि वर्तमान दौर में निष्ठा संस्थागत न होकर व्यक्तिगत हो चली है। इस स्थिति पर बहस की जरूरत है। क्योंकि मूल्यों में गिरावट का यह भी एक बड़ा कारण है। कोई आश्चर्य नहीं कि आज पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग पत्रकारीय दायित्व से पृथक नई भूमिका में अवतरित है। मुख्यत: उस भूमिका में जिसके आकर्षण की शिकार महिमामंडित पत्रकार बरखा दत्त तक हो चुकी हैं। कलम के धनि के रूप में अब तक चर्चित वीर सांघवी हो चुके हैं। खबर आई है कि राजधानी दिल्ली में पत्रकारों की इस नई भूमिका पर बहस आयोजित है। इस पहल का स्वागत है। लेकिन, मैं चाहंूगा कि बहस की यह शुरुआत प्रथम और अंतिम बनकर न रह जाए। देश के हर भाग में इस पर सार्थक बहस हो। सिलसिला तब तक चले जब तक यह तार्किक परिणति पर नहीं पहुंच जाती।

9 comments:

Pramendra Pratap Singh said...

अनैतिकता के बाजार मे सभी बिके हुये हैयही कारण है कि सब गलत भी सही दिखता है।

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

पत्रकारिता का जो मूलभूत सिद्धांत और भावना थी उसे तो ये कबका बेच खा चुके !

Unknown said...

जो आतंकवादियों द्वारा की जाने वाले निर्दोशों के कत्ल को ये कहकर जायज ठहराते हैं कि ये वेचारे गरीब हैं इसलिए हिन्दूओं का खून वहा रहे हैं वो आर्थिक मन्दी का तर्क देकर पेड समाचार को ठीक क्यों नहीं ठहरायेंगे

पंकज मिश्रा said...

u r right.

mukesh said...

आपके विचारों से पूर्णतः सहमत हूँ.

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

कितने पत्रकार बचे हैं अब... अब तो सारे मार्केटिंग एक्जीक्यूटिव्स हैं...

राम त्यागी said...

Right ..शुक्रिया जानकारी के लिए ...
http://meriawaaj-ramtyagi.blogspot.com//

Unknown said...

उन पत्रकारिता समूहो से जिनके मालिकान राज्यसभा मे एक तुच्छ सीट पाने के लिए भ्रष्ट राजनेताओ के पैरो तले अपनी टोपिया रखते आए है...क्या वो हमारा और आपका सच लिख और कह सकते है ..?

Unknown said...
This comment has been removed by the author.